प्रासंगिक और सारगर्भित | ये नरभक्षी 'नक्सली' नहीं, चीन के 'धन' और 'गन' से लैस 'माओवादी' हैं... इनमें बुनियादी फर्क समझिए...

    • छत्तीसगढ़ में हुए दर्दनाक नक्सली हमले पर मध्यप्रदेश के सीनियर जर्नलिस्ट जयराम शुक्ल का ज्वलंत लेख 

''ये कानू सान्याल, चारू मजूमदार की नक्सलबाड़ी से उपजे क्रांतिदूत नहीं अपितु ये वहसी राक्षस हैं, दरिंदे, लुटेरे, चौथ वसूलने वाले राष्ट्रद्रोही। ये नक्सली नहीं चीन के 'धन' और 'गन' से लैस माओवादी हैं, जिन्होंने देश के भीतर ही देश के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। इन्हें वैसे ही मानना चाहिए जैसे कि पाकिस्तान शह पर देश के भीतर सक्रिय आतंकवादी संगठन।''

यह माओवाद आतंकवाद की ही भाँति सीमा पर होने वाले घोषित युद्धों से ज्यादा खतरनाक और चुनौतीपूर्ण है क्योंकि यहां दुश्मन की सीधी और स्पष्ट पहचान नहीं। जेएनयू, जादवपुर, मिल्लिया, हैदराबाद, अलीगढ़ जैसे विश्वविद्यालयों में सक्रिय टुकड़े-टुकड़े गैंग और कतिपय देशतोड़क सांस्कृतिक संगठनों के कथित बुद्धिभक्षियों को देश के समक्ष यह तथ्य स्पष्ट करना चाहिए कि माओवादियों के हर धमाकों पर वे जश्न क्यों मनाते हैं.? अफजल और याकूब की फाँसी के खिलाफ क्यों हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं..? भीमा कोरेगांव में जाकर देश के खिलाफ आग क्यों सुलगाते हैं? आमतौर पर मीडिया माओवादियों को नक्सली के तौर पर पेश करता है, जनसामान्य भी इसी भाव में लेता है। जबकि नक्सलवाद और माओवाद में बुनियादी फर्क है, यह बात सबको समझना और समझाना चाहिए क्योंकि तभी हम यह स्पष्ट कर पाएंगे कि भारत के खिलाफ सीमा पर और देश के भीतर चीन का स्ट्रैटजिक प्लान क्या है..। पहले समझते हैं कि नक्सली और नक्सलवाद क्या है..? यह माओवाद से क्यों अलग है..?

नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई 

नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है, जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे जमीदारों के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। पं. बंगाल की तत्कालीन सरकार सामंतों की पोषक थी और वे खेतिहर मजदूरों का क्रूरता के साथ शोषण करते थे।सरकार जब मजदूरों, छोटे किसानों की बजाय जमीदारों के पाले में खड़ी दिखी तो यह धारणा बलवती होती गई  कि  मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया। कानू सान्याल ने से अपने आन्दोलन की यह दशा देखकर 23 मार्च 2010 को नक्सलबाड़ी गांव में ही खुद को फांसी पर लटकाकर जान दे दी थी। मरने से एक वर्ष पहले बीबीसी से बातचीत में सान्याल ने कहा था कि वो हिंसा की राजनीति का विरोध करते हैं। उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे हिंसक आंदोलन का कोई फल नहीं मिला. इसका कोई औचित्य नहीं है।’’ नक्सलबाड़ी की क्रांति पं. बंगाल के जमीदारों के खिलाफ थी... चूंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जो खुद बड़े जमीदार थे, के नेतृत्व वाली पं. बंगाल सरकार जमीदारों की पक्षधर थी इसलिए लड़ाई को सरकार के खिलाफ घोषित कर दिया गया।  

नक्सलबाड़ी की क्रांति किसान-मजदूरों की चेतना का उद्घोष थी

अपनी मौत से पहले कानू सान्याल ने हिंसक क्रांति को व्यर्थ व अनुपयोगी मान लिया था। नक्सलबाड़ी की क्रांति किसान-मजदूरों की चेतना का उद्घोष थी। नक्सलबाड़ी की क्रांति में खेतिहर महिलाएं भी शामिल थीं... जिन्होंने हंसिया,खुरपी,दरांती से सामंती गुन्डों का मुकाबला किया..। अपने आरंभकाल में यह क्रांति अग्नि की भांति पवित्र व सोद्देश्य थी... इसके विचलन को स्वीकारते हुए ही कानू सान्याल ने आत्मघात किया। सन 2006 में एक पत्रिका की कवर स्टोरी के संदर्भ में मैंने कानूदा से बातचीत की थी। क्या ये नहीं मालूम कि कानू सान्याल और चारू मजूमदार का नक्सलवाद 77 की ज्योतिबसु सरकार के साथ ही मर गया था? जिस भूमिसुधार को लेकर और बंटाई जमीदारी के खिलाफ नक्सलबाड़ी के खेतिहर मजदूरों ने हंसिया और दंराती उठाई थी उसके मर्म को समझकर पं.बंगाल में व्यापक सुधार हुए, साम्यवादी सरकार के इतने दिनों तक टिके रहने के पीछे यही था। उस समय के नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रायः सभी नेता मुख्यधारा की राजनीति में आ गए थे। चुनावों में हिस्सा भी लिया। मेरी दृष्टि में इन आदमखोर माओवादियों को नक्सली कहा जाना या उनकी श्रेणी में रखना उचित नहीं। 

वैसे बता दें कि आधिकारिक तौर पर भी ये नक्सली नहीं माओवादी हैं और सरकार भी मानती है कि यह राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं। जबकि नक्सलियों का कदम विशुद्ध रूप से सामंती शोषण के खिलाफ था।

- (यह लेखक के निजी विचार हैं)
Comments
Popular posts
10th Result | अमरपुर के अमर ज्योति विद्यालय के 38 में से 38 और विद्या मंदिर के 29 में 25 स्टूडेंट्स फर्स्ट डिवीजन में पास, कनक मरावी ब्लॉक टॉपर
Image
10th Result | हाईस्कूल परीक्षा में डिंडौरी के टॉप-02 में मदर टेरेसा स्कूल के 04 स्टूडेंट्स, टॉप-03 में राजूषा स्कूल डिंडौरी और शहपुरा मदर टेरेसा स्कूल से 1-1 स्टूडेंट
Image
Public Concern | डिंडौरी के 27 फीडर्स में 13 से 18 दिसंबर तक चलेगा मैंटेनेंस कार्य, जिले के विभिन्न क्षेत्रों सुबह 09 से शाम 05 बजे तक बाधित रहेगी बिजली सप्लाई
Image
फैक्ट चैक | गलत अर्थ के साथ वायरल हो रहा श्रीरामचरित मानस का दोहा-चौपाई, बनारस के विद्वानों ने बताई सच्चाई
Image
Big Boss Season 17 | दिलचस्प कंटेस्टेंट, अट्रैक्टिव एक्टिविटीज और चैलेंजिंग टास्क का कंप्लीट कॉम्बो
Image