सुप्रसिद्ध फिल्म समालोचक सुनील मिश्र की कलम से | मैं जब कभी डिंडौरी जैसे वातावरण का हिस्सा होता हूं तो शायद जिंदगी का सबसे सुंदर पल जीता हूं!

सुनील मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समालोचक हैं। वह भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग से जुड़कर प्रदेश की कला और संस्कृति से प्रेरित लेख लिखते हैं। उन्होंने डिंडौरी की अद्भुत यात्रा का वर्णन 'डिंडौरी के हाट बाजार में...' शीर्षक से किया है...



''दूर-सुदूर का आकर्षण सदैव से रहा है। यात्राओं की बड़ी थकन की कीमत पर सहजता से करने का मन कभी बदला भी नहीं। बड़ा अच्छा लगा, जब एक दिन के लिए डिंडौरी जाने का मौका मिला... कुछ घंटों के लिए। शहर की मुख्य सड़क पर जहां एक बड़ा-सा मैदान है और दूसरी ओर पक्की दुकानें। वहीं, नीचे लाइन से सप्ताह का हाट बाजार लगता है, जिसे संयोगवश देखने का अवसर मिला। ऐसी आंचलिक जगाहट देखकर मेरी बांछें हमेशा से खिल उठती रही हैं। एक ओर पक्की दुकानों में अनेक प्रकार की वस्तुएं। पीतल और एल्यूमीनियम के बड़े-बड़े बरतन बाहर तक लगे और सजे। रंग बिरंगे कपड़े, टोपी, फीता, रिबन, चुटीला और दैनन्दिन की अनेक सामग्रियां। इधर, जमीन पर सूखी मिर्च, हल्दी, गरम मसाले, काली मिर्च, जीरा, धनिया, सोयाबीन की बड़ी, चावल, दालें, राई, मैथी जानें क्या-क्या? सामने की ओर चायनीज के ठेले ठिलिया और पानी पूरी, खस्ता, टिकिया, चाट। सभी के साथ लोगों का जीवन्त सरोकार, खरीदते हुए, देखते, पसंद और इत्मीनान करते हुए। खाते-पीते हुए, मोलभाव करते हुए, लादते-उतारते हुए। कंधों और सिर पर थैले और बच्चों को समान जगह। पिता के कंधे पर चढ़ा गर्वित बच्चा शायद सबसे ऊंचा होता है। पिता की जिंदगी का भी यह सबसे बड़ा सुख होता है। देख-देखकर सिहाता हुआ मैं भी ताजी सब्जियों को देखकर खुद को रोक नहीं पाया। वहीं एक दुकान से ₹20-20 के दो झोले लिए और फिर अपने मन की करने में मजा आया। टोकरियों में ताजी सब्जियॉं तोड़कर करीने से गड्‌डी बनाकर लाईं महिलाओं और वृद्ध माताओं को देखकर मन खुश हो गया। ₹10-10 किलो पालक, मैथी, लाल भाजी। अब तक पहले न देखीं नरम पतली मुनगे की फलियों की गड्‌डी भी इसी कीमत पर। हां, भिंडी जरूर ₹60 किलो थी, लेकिन साफ पहाड़ी आलू ₹15/किलो के भाव। पारस्परिक ग्राहकों के साथ सब्जी बेचनेवालियों का मोलभाव, सहमति-असहमति... मन ही मन मुस्काया कि इन मेहनतकश गरीबों से भी हम चाहते हैं कि ये अपना सामान आधी कीमत में दे जाएं या मुफ्त ही में। क्या हैं हम लोग... उफ..। बड़े, आधुनिक, मतलबपरस्त और लगभग शातिर हो चले शहरों में हम सब भी उसी रंग में रंगे होते हैं। पढ़े-लिखे और अनुभवी होना शायद इसी को कहा जाता है। ऐसे में जब कभी डिंडौरी जैसे वातावरण का हिस्सा होता हूं तो शायद जिंदगी का सबसे सुंदर पल जीता हूं। ऐसी जगहों पर जिन-जिनसे मिला, मुझे लगता है कि उनके आगे मैं चार आने भर भी नहीं हूं। मुझे बहुत गहरे से लगा कि ये सचमुच अनंत काल तक ऐसे ही बने रहें, इस‍के लिए मुझे मास्क बांध लेना चाहिए। इनको इंफेक्शन से बचाना चाहिए। सचमुच, आंचलिकता की संस्कृति, जीवन शैली, लोक व्यवहार का यथावत बने रहना ही शेष मनुष्यता को सारे पापों के बावजूद बचाए हुए हैं।''

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डिंडौरी वास्तव में स्वर्ग है.
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