190वीं जयंती विशेष | 1951 के बाद रामगढ़ से डिंडौरी कहलाया प्रथम स्वाधीनता संग्राम की पहली महिला शहीद वीरांगना रानी अवंतीबाई का कर्मक्षेत्र

  • रामगढ़ पहले मंडला जिले का हिस्सा था, लेकिन 1998 में मंडला के विभाजन के बाद रामगढ़ डिंडौरी जिले में शामिल हो गया



डीडीएन इनपुट डेस्क | डिंडौरी मुख्यालय से 23 किलोमीटर दूर रानी अवंती बाई की कर्मभूमि और राजधानी रामगढ़ के निशान आज भी मिलते हैं। रामगढ़ महल एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित था, जो खरमेर नदी के किनारे बसा था। रामगढ़ अमरपुर से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पूर्व में रामगढ़ मंडला जिले का हिस्सा था, लेकिन 1998 में मंडला जिले के विभाजन के बाद रामगढ़ डिंडौरी जिले में शामिल हो गया। 1951 तक डिंडौरी क्षेत्र रामगढ़ के नाम से ही जाना जाता था। रानी अवंतीबाई भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पहली महिला शहीद वीरांगना थीं। 1857 की क्रांति में अवंतीबाई रेवांचल में मुक्ति आंदोलन की सूत्रधार थीं। मुक्ति आंदोलन में रामगढ़ की अहम भूमिका थी, जिससे इतिहास जगत अनभिज्ञ है।


कभी आलीशान महलों से घिरा रामगढ़ आज एक छोटा सा गांव रह गया


रानी अवंतीबाई के समय में रामगढ़ अपनी भव्यता और किले-अट्‌टारियों के लिए प्रचलित था। इसी वजह से अंग्रेजों की नजर रामगढ़ पड़ी थी। आज यह महज एक छोटा सा गांव है। यहां एक टीलानुमा पहाड़ी पर रानी अवंतीबाई के महल की कुछ दीवारें ही शेष बची हैं। महल के अवशेष के सामने राधा-कृष्ण मंदिर है। मंदिर में भगवान गणेशजी की प्रतिमा भी है। यह मंदिर रानी के वंशजों ने बनवाया था। एमपी गर्वनमेंट ने 1988-1989 में रानी की याद में यहां एक पार्क का निर्माण कराया। पार्क में घोड़े पर सवार रानी अवंती बाई की भव्य प्रतिमा स्थापित है। हर साल 16 अगस्त को रानी अवंतीबाई के जन्मदिन और 20 मार्च को उनके बलिदान दिवस पर रामगढ़ में रानी की याद में भव्य आयोजन होते हैं। हालांकि इस बार कोरोनावायरस संक्रमण के कारण आयोजन सिमटकर रह जाएंगे। मगर देशवासियों के हृदय से रानी की छवि कभी नहीं मिट सकती। 



4000 वर्गमील क्षेत्र में फैला था रामगढ़, 10 परगने और 681 गांव शामिल थे


रानी के काल में रामगढ़ राज्य की भव्यता के चर्चे दूर-दूर तक फैले थे। तब यह 4000 वर्ग मील तक फैला था। इसमें शाहपुर, शहपुरा, मेहंदवानी, रामपुर, मुकुटपुर, प्रतापगढ़ ,चौबीसा और करोतिया जैसे 10 परगने और 681 गांव थे। इसकी सीमाएं  मंडला, डिंडोरी, सोहागपुर और अमरकंटक तक फैली थीं। गोंड राजवंश के समय रामगढ़ राजा संग्राम शाह के 52 गढ़ों में से एक था। तब रामगढ़ को अमरगढ़ कहा जाता था। गोंड राजा निजाम शाह के शासन काल में रामनगर (मंडला) में आदमखोर शेर ने आतंक मचा रखा था, जिसे मुकुट मणि और मोहन सिंह नाम के भाइयों ने मारा था। शेर के साथ लड़ाई में मुकुट मणि मारे गए थे। राजा ने बहादुरी से खुश होकर मोहन सिंह को सेनापति बनाया था। मोहन की मृत्यु के बाद राजा ने गाजी (गज) सिंह को मुकुटपुर तालुका का जमींदार बना दिया। तब मुकुटपुर में डाकुओं और विद्रोहियों का वर्चस्व था। राजा को यहां से राजस्व नहीं मिल पाता था। इस क्षेत्र से गाजी सिंह ने डाकुओं-विद्रोहियों का आतंक समाप्त कर दिया। गाजी की वीरता से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें रामगढ़ की जागीर देकर राजा की उपाधि प्रदान की। बाद में गाजी सिंह ने रामगढ़ का काफी विकास-विस्तार किया। गाजी के बाद वंश के अगले राजा लक्ष्मण सिंह 1817 से 1851 तक रामगढ़ के शासक थे। उनके निधन के बाद पुत्र विक्रमजीत (विक्रमादित्य) सिंह ने राजगद्दी संभाली। विक्रम का विवाह बाल्यावस्था में ही सिवनी के मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह की पुत्री अवंतीबाई से हुआ। विक्रम ज्यादातर पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते थे। इसलिए राज्य का संचालन उनकी पत्नी रानी अवंतीबाई ही करती रहीं। 



दिल और धड़कन की तरह था रानी अवंतीबाई और रामगढ़ का नाता


रानी अवंतीबाई का जन्म सिवनी के ग्राम मनकेहणी के जमींदार राव जुझार सिंह के घर 16 अगस्त 1831 को हुआ। अवंतीबाई विवाह के समय 17 साल की थीं। 1851 में राजा विक्रमादित्य ने गद्दी संभाली। इनके दो पुत्र थे- कुंवर अमान सिंह और कुंवर शेर सिंह। दोनों पुत्र बच्चे ही थे कि राजा विक्षिप्त हो गए और राज्य की जिम्मेदारी रानी पर आ गई। यह खबर पाकर अंग्रेजों ने रामगढ़ राज्य पर कोर्ट ऑफ वार्ड्स कार्यवाही की और राज्य के प्रशासन के लिए सरबराहकार नियुक्त कर शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को रामगढ़ भेज दिया। रानी ने इसे राज्य का अपमान समझा और सरबराहकारों को बाहर खदेड़ दिया। इसी बीच अचानक राजा का निधन हो गया और रानी की परेशानियां बढ़ती चली गईं।



रामगढ़ के सेनापति ने भुआबिछिया को जीता, सिपाहियों ने घुघरी पर जमाया कब्जा


राजा के निधन के बाद 1857 की क्रांति महाकोशल क्षेत्र तक फैल चुकी थी। राजाओं और जमीदारों ने अंगेजों का व्यापक विरोध किया। रामगढ़ के सेनापति ने भुआबिछिया में बने अंग्रेजों के थाने पर चढ़ाई कर उसे जीत लिया। वहीं, रानी के सिपाहियों ने घुघरी पर कब्जा जमाया। यह विद्रोह विद्रोह रामगढ़ और रामनगर (मंडला) में आग की तरह फैल गया। अंग्रेज विद्रोह को दबाने में असफल रहे। इसके बाद 23 नवंबर 1857 को ग्राम खैरी (मंडला) के पास अंग्रेजों और रानी के बीच युद्ध हुआ। इसमें आसपास के जमीदारों ने रानी का साथ दिया। युद्ध में अंगेजों की हार हुई। रानी अवंतीबाई ने दिसंबर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ा मंडला पर राज किया। दूसरी ओर, अंग्रेज लगातार तैयारी करते रहे और जनवरी 1858 को घुघरी पर नियंत्रण कर लिया। फिर मार्च 1858 में रामगढ़ को घेर लिया। अंग्रेजों ने रामगढ़ के महल को बहुत नुकसान पहुंचाया।



इस युद्ध में रीवा नरेश ने अंग्रेजों का साथ दिया था। रानी अवंतीबाई शाहपुर के नजदीक देवहार गढ़ चली गईं। यहां की ऊंची पहाड़ी पर रानी ने मोर्चा बनाया। यहीं रहकर रानी ने गोरिल्ला युद्ध नीति अपनाई। हालांकि तब तक अंग्रेजों ने रानी को चारों तरफ से घेरना प्रारंभ कर दिया था। एक बार फिर रानी और अंग्रेजों के बीच घमासान युद्ध हुआ। शाहपुर के पास बालपुर गांव में 20 मार्च 1958 को रानी ने खुद को घिरता हुआ पाया और वीरांगना दुर्गावती का अनुकरण करते हुए स्वयं को तलवार मार ली, ताकि वो अंग्रेजों के हाथ न आ सकें। रानी के सैनिक गंभीर अवस्था में रानी को रामगढ़ ले जा रहे थे, तभी बालपुर और रामगढ़ के बीच सूखी-तलैया नामक स्थान पर रानी अवंतीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी के जाते ही इस क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन बेदम हो गया और रामगढ़ भी अंग्रेजों के हाथों में आ गया।



खंडहर में बदल गए रामगढ़ के महल, जर्जर हुई वीरांगना अवंतीबाई की समाधि 


रामगढ़ में महल के अवशेषों से कुछ दूर पहाड़ी के नीचे रानी अवंतीबाई की समाधि बनी है, जो मौजूदा दिनों में बहुत जर्जर अवस्था में है। इसी के पास ही रामगढ़ राजवंश के अन्य व्यक्तिओं की भी समाधियां हैं। युद्ध के बाद रामगढ़ राज्य के टुकड़े हो गए। अंग्रेजों ने रामगढ़ का सोहागपुर क्षेत्र रीवा नरेश को दे दिया। शेष क्षेत्र रामगढ़ के कब्जे में रहा। रानी युद्ध में जाने से पहले पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह को अलोनी गांव में छोड़ गई थी। बाद में अंग्रेजों ने रानी के दोनों बेटों को कुछ गांव देकर पेंशन देना शुरू कर दिया। रामगढ़ रियासत के अंतिम राजा इंद्जीरत सिंह थे। इनकी तीन पत्नियां थीं, लेकिन संतान एक भी नहीं थी।  रामगढ़ की अंतिम वारिस इंद्रजीत की पत्नी भनिया बाई थीं। भनिया बाई की मौत 1981 में हुई।


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