पुण्यसलिला मां नर्मदा विशेषांक... सतत प्रवहित नित सृजनरत नर्मदा शुभ अक्षरा भारती है विश्व-वाणी सरस सरला उर्वरा...

  • डिंडौरीडॉटनेट पर पहली बार देखिए अमरकंटक से डिंडौरी की ओर आतीं मां मेकलसुता का विहंगम दृश्य



डीडीएन स्पेशल रिपोर्ट | रामकृष्ण गौतम


डिंडौरी कई मायनों में विशेष है। यहां की सभ्यता, संस्कृति, परंपराएं और इन सबसे ऊपर मां नर्मदा की असीम अनुकंपा। 25 मई 1998 को जिला बने इस शहर सहित इसके 900 से अधिक गांवों के लाखों लोगों को मां रेवा की अमृत रूपी जलधारा सींचती आ रही है। करीब 7500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले डिंडौरी में मां नर्मदा का इतिहास सदियों पुराना है। यह हमारा परम सौभाग्य है कि अमरकंटक से प्रकटीं मां शांकरी ने डिंडौरी में भी अपना पड़ाव बनाया। वे इस शहर के बीच से होते हुए आगे कई स्थानों पर विश्राम के लिए रुकीं और वहां अपने निशान छोड़े। डिंडौरी के पश्चिम में स्थित मंडला में भी रेवा मां ने अपने पदचिह्न छोड़े हैं।


मप्र की जीवन रेखा मां नर्मदा प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भारत की सात सर्वाधिक पवित्र नदियों में से एक है। छोटे-बड़े सभी धार्मिक-सनातनी संस्कारों और देवी-देवताओं के पूजन में स्नान के लिए चढ़ाए जाने वाले जल को अभिमंत्रित करने के लिए छह अन्य पवित्र नदियों के साथ मां नर्मदा का भी आह्वान किया जाता है। हालांकि ऋग्वेद में मां नर्मदा का उल्लेख नहीं मिलता, परंतु इस विषय में अनेक विद्वानों का मत है कि उत्तर भारत में आर्यों का जो पहला दल आया था वह सघन वनों के कारण संभवतः प्रायद्वीप में गंगा-सिन्धु के मैदान से आगे नहीं बढ़ सका था। इसलिए ऋग्वेद के रचयिता आर्यों ने मां नर्मदा को देखा ही नहीं था। ऋग्वेद की बात छोड़ दी जाए तो अन्य कई प्राचीन ग्रंथों में माता नर्मदा का उल्लेख मिलता है। कई पुराणों में नर्मदा की उत्पत्ति और महिमा के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है। वहीं प्रसिद्ध स्कंद पुराण का रेवाखंड तो पूरी तरह से मां नर्मदा की उत्पत्ति और महिमा के वर्णन को ही समर्पित है। साथ ही नर्मदा पुराण भी मां नर्मदा पर अलग से ही रचा गया एक ग्रंथ है। इसके अलावा वाल्मीकि कृत रामायण और कालिदास रचित मेघदूत समेत कई प्राचीन ग्रंथ हैं, जिनमें मां नर्मदा का वर्णन आता है। यूनानी विद्वान टॉलमी ने मां अनंता को नोम्माडोस या नम्माडियस कहा है। 


डिंडौरीडॉटनेट की ओर से मां नर्मदा पर केंद्रित इस प्रस्तुति के माध्यम से जीवनदायिनी मां के अद्भुत, अनंत और नूतन रूप के दर्शन करें। हम अपने आंगन में निष्छल-चंचल मां रेवा की किलकारियों का उत्सव मनाएं... हर हर मां नर्मदे!!!


हमें सिर्फ जीवन ही नहीं देतीं, जीना भी सिखातीं हैं ममतामयी मां नर्मदे



- हेमलता गौतम, कंटेंट राइटर, नोएडा


कहते हैं जल ही जीवन है। ...और जल अगर मां रेवा का हो तो मनुष्य के भीतर मौजूद पंचतत्व भी पावन और पापमुक्त हो जाते हैं। मत्स्यपुराण में कहा गया है :


त्रिभीः सास्वतं तोयं सप्ताहेन तुयामुनम्। सद्यः पुनीति गांगेयं दर्शनादेव नार्मदम्।।


अर्थात् मां सरस्वती में तीन दिन, मां यमुना में सात दिन और मां गंगा में एक दिन स्नान करने से मनुष्य पावन होता है लेकिन मां नर्मदा के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति पवित्र हो जाता है। ऐसी पावन मां को दूषित होने से बचाना हमारा मूल कर्तव्य है। जैसे मां गंगा के तट पर प्राण त्यागने से मुक्ति मिलती है वैसे ही मां नर्मदा के तट पर तप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। मां मेकलसुता जीवनदायिनी तो हैं, साथ ही यह हमें जीवन जीना भी सिखाती हैं।


‘रेवते इति रेवा...’ यानि सततप्रवाहिनी। मां मंदाकिनी सर्वदा चलते रहने की प्रेरणा देती हैं। यह सिर्फ एक नदी नहीं बल्कि हमारे लिए एक पुरातन और पावन सभ्यता हैं। विशेषकर डिंडौरी के लिए यह रगों में बहने वाले लहू से भी कहीं अधिक मूल्यवान हैं, जो मृत्युलोक से मोक्ष के द्वार तक ले जाती हैं। ऐसी मां रेवा को सुरक्षित और संरक्षित करना हमारा परम दायित्व है। नर्मदा पुराण के इस प्रसंग के जरिए जानते हैं कि हमारे लिए मां नर्मदा को बचाना क्यों और कितना जरूरी है- एक समय सभी लोकों में विनाशकारी सूखा पड़ा। एक शताब्दी से अधिक समय तक वर्षा न होने से संपूर्ण लोक नष्ट हो गए। वृक्षों, लताओं आदि का विनाश होने लगा। समुद्र, नदी, तालाब आदि सब सूखने लगे। समस्त जंगल भी समाप्त होने लगे। इस काल में लगभग सारी सृष्टि भस्म हो गई, लेकिन मां नर्मदा फिर भी बनी रहीं। श्रीस्कंद पुराण में उल्लेख है कि मां गंगा आदि नदियां कल्पों के बीत जाने पर समाप्त होकर फिर से उत्पन्न होती हैं, लेकिन मां नर्मदा सात कल्पों तक भी क्षय नहीं होतीं। मत्स्य पुराण में कहा गया है कि मां नर्मदा नदियों में श्रेष्ठ और सब पापों का नाश करने वाली हैं। वह चर-अचर सभी को तारने वाली हैं। इसलिए हमारे लिए कन्या रूपी मां रेवा को सहेजना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे अनगिनत संत हैं, जिन्होंने मां नर्मदा के तट पर ही सिद्धि पाई है, जिनके नाम लेना तारों को गिनने के समान है। भगवान दत्तात्रेय के परमउपासक वासुदेवानंद सरस्वती ने मां नर्मदा के पास चातुर्मास किया था। वे अंतिम समय में गुजरात के गरुड़ेश्वर में मां रेवा के तीर लीन हो गए। महाराष्ट्र के संत गजानन महाराज जब ओंकारेश्वर आए तो मां नर्मदा ने उनकी नाव डूबने से बचाई... ऐसा गजानन विजय ग्रंथ में वर्णन है। नर्मदाष्टकम् के रचयिता आदिगुरु शंकराचार्य को भी मां नर्मदा के तट पर विशेष सिद्धि व ज्ञान की प्राप्ति हुई।


हम डिंडौरी के नागरिक सौभाग्यशाली हैं कि हमें रोजाना पुण्यसलिला मां नर्मदा के पवित्र दर्शन, स्नान और परिक्रमा करने का फल सहज ही मिल रहा है। नर्मदे हर!


मां नर्मदा की आत्मकथा : नर्मदा पुत्र अमृतलाल वेगड़ द्वारा लिखित ‘नर्मदा नदी की आत्मकथा’ के कुछ अंश...



मैं उम्र में गंगा से बड़ी हूं... जब गंगा नहीं थी, मैं तब भी थी : मां नर्मदा


आज जहां मैं हूं, वहां 4 करोड़ वर्ष पूर्व अरब सागर का एक संकरा हिस्सा लहराता था। इसीलिए मेरी घाटी में दरियाई घोड़ा, दरियाई भैंसा, राइनोसॉरस जैसे समुद्री पशुओं के जीवाश्म पाए गए हैं। मेरे ही तट पर मानव के विलुप्त पूर्वजों के अस्थि-पंजर भी पाए गए हैं। 
उम्र के हिसाब से मैं गंगा से बड़ी हूं, क्योंकि जब गंगा नहीं थी, मैं तब भी थी। जब हिमालय नहीं था, विन्ध्य तब भी था। विन्ध्य शायद भारत भूमि का सबसे पुराना प्रदेश है। 
लेकिन यह पुरानी, बहुत पुरानी बात है। यह ठीक है कि मेरे तट पर मोहन जोदड़ो या हड़प्पा जैसे 5,000 वर्ष प्राचीन नगर नहीं रहे, लेकिन मेरे ही तटवर्ती प्रदेश होशंगाबाद और भीमबैठका में 20,000 वर्ष पुराने प्रागैतिहासिक चित्र पाए गए हैं और उतने बड़े नगर मेरे तट पर हो भी कैसे सकते थे। मेरे दोनों ओर दंडकारण्य जैसे घने जंगलों की भरमार थी। इन्हीं जंगलों के कारण वैदिक आर्य तो मुझ तक पहुंचे ही नहीं। बाद में जो आए, वे भी अनेक वर्षों तक इन जंगलों को पार कर दक्षिण में जाने का साहस न कर सके। इसलिए मैं आर्यावर्त की सीमारेखा बनी। उन दिनों मेरे तट पर आर्यावर्त या उत्तरापथ समाप्त होता था और दक्षिणापथ शुरू होता था। मेरे तट पर मोहन जोदड़ो जैसी नगर संस्कृति नहीं रही, लेकिन एक आरण्यक संस्कृति अवश्य रही। भारतीय संस्कृति मूलत: आरण्यक संस्कृति है। मेरे तटवर्ती वनों में मार्कण्डेय, भृगु, कपिल, जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे। यहां  यज्ञवेदियों का धुआं आकाश में मंडराता रहता था।
ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा-तट पर ही करनी चाहिए। इन्हीं ऋषियों में से एक ने मेरा नाम रेवा रखा। रेव यानी कूदना। उन्होंने मुझे चट्टानों में कूदते-फांदते देखा, तो मेरा नाम रेवा रखा। एक अन्य ऋषि ने मेरा नाम नर्मदा रखा। नर्म यानी आनन्द। उनके विचार से मैं सुख या आनन्द देने वाली नदी हूं, इसलिए उन्हें नर्मदा नाम ठीक जान पड़ा। भारत की अधिकांश नदियां पूर्व की ओर बहती हैं, मैं पश्चिम की ओर। अमरकंटक में मेरा और सोन का उद्गम पास-पास है। लेकिन मैं पश्चिम में बहती हूं और सोन पूर्व में... बिल्कुल विपरीत दिशाओं में। इसे लेकर पुराणों में एक सुन्दर कहानी है। उसके अनुसार मेरा और सोन (यानी शोणभद्र, जिसे उन्होंने नद माना है) का विवाह होने वाला था। पर शोण मेरी दासी जुहिला पर ही आसक्त हो बैठा, तो मैं नाराज हो गई। कभी विवाह न करने के संकल्प के साथ पश्चिम की ओर चल दी। लज्जित और निराश शोण पूर्व की ओर गया। मैं चिरकुमारी कहलाई। इसीलिए भक्तगण मुझे अत्यन्त पवित्र नदी मानते हैं और मेरी परिक्रमा करते हैं। यह परिक्रमा भिक्षा मांगते हुए नंगे पैर करनी पड़ती है और नियमानुसार करने पर इसमें 3 वर्ष, 3 महीने और 13 दिन लगते हैं। जीवन में मैंने सदा कड़ा संघर्ष किया। सरल मार्ग छोड़कर कठिन मार्ग चुना। कठिनाइयों में से रास्ता निकालना मेरा स्वभाव है। अमरकंटक से जो एक बार चली, तो खड्डों में कूदती, निकुंजों में धंसती, चट्टानों को तराशती और वन-प्रांतरों की बाधा तोड़ती भागती चली गई। न जाने कौन-सी अक्षय शक्ति मुझे पहाड़ी ढलानों, घाटियों, वनों या पथरीले पाटों में बिना थके दौड़ते रहने की प्रेरणा देती है। अपनी सारी शक्ति से, जिसे मैंने अपना अंतिम लक्ष्य माना, उसी ओर चलती रही... दिन और रात, रात और दिन! मैं एक हूं, पर मेरे रूप अनेक हैं।
याद रखो... पानी की हर बूंद एक चमत्कार है। हवा के बाद पानी ही मनुष्य की बड़ी आवश्यकता है। किन्तु पानी दिन पर दिन दुर्लभ होता जा रहा है। नदियां सूख रही हैं। आए दिन अकाल पड़ रहे हैं। मुझे खेद है। यह सब मनुष्यों के अविवेकपूर्ण व्यवहार के कारण हो रहा है। अभी भी समय है। वन-विनाश बंद करो। बादलों को बरसने दो। नदियों को स्वच्छ रहने दो। केवल मेरे प्रति ही नहीं, समस्त प्रकृति के प्रति प्यार और निष्ठा की भावना रखो। यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि मुझे तुमसे बेहद प्यार है। खुश रहो मेरे बच्चों!


साल 2000 में डिंडौरी के नर्मदा तट पर पहले पुल का तब के सीएम दिग्विजय सिंह ने कराया था भूमिपूजन, पुराने बस स्टैंड से नर्मदा के पार साकेत नगर, देवरा, मुड़की को जोड़ता है ये ब्रिज



नर्मदा रोड ब्रिज पुराने बस स्टैंड और नर्मदा गंज की ओर से नर्मदा के पार बसे साकेत नगर, देवरा, मुड़की आदि के हजारों लोगों के आवागमन का साधन है। इससे अनूपपुर, घुघरी, नेवसा के लिए बसों का भी संचालन होता है। 



डिंडौरी यात्रा तक मां नर्मदा की होती है कई नदियों से मुलाकात 



अमरकंटक से डिंडौरी तक की यात्रा के दौरान मां नर्मदा से कई नदियों की मुलाकात होती है। इनमें तुरर, सिवनी, मचरार, चकरार आदि नदियां शामिल हैं। डिंडौरी के बाद पश्चिमी दिशा में बढ़ने का रुझान बनाए हुए भी मां नर्मदा सर्पाकार बहती जाती हैं। उद्गम स्थल से 140 किलोमीटर तक बहने के बाद अचानक पश्चिम दिशा का प्रवाह छोड़कर दक्षिण की ओर मुड जाती हैं। इसी दौरान एक प्रमुख सहायक नदी बुढ़नेर का मां नर्मदा से संगम होता है। दक्षिण दिशा में चलते-चलते मां रेवा को एक बार फिर याद आता है कि वह तो पश्चिम दिशा में जाने के लिए घर से निकली थीं इसलिए वह वापस उत्तर दिशा में मुड़कर मंडला को घेरते हुए एक कुंडली बनाती हैं।


मंडला में दक्षिण की ओर से आने वाली बंजर नदी का इनसे मिलन होता है और एरियल व्यू देखने पर चिमटे जैसी आकृति का निर्माण होता है। यहां ऐसा लगता है कि मां नर्मदा बंजर नदी से मिलने के लिए खुद ही उसकी ओर अपना हाथ बढ़ा रही हों। ...और इस मिलाप के बाद वह वापस अपने पुराने रास्ते पर चल पड़ती हैं। इसके आगे मां मंदाकिनी उत्तर की ओर चलते हुए जबलपुर का रुख कर लेती हैं।


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